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सोमवार, 7 मार्च 2011

JANCH-PARAKH: बुढ़ाते बालों के पक्ष में / मुसाफिर बैठा की कविता

JANCH-PARAKH: बुढ़ाते बालों के पक्ष में / मुसाफिर बैठा की कविता

बुढ़ाते बालों के पक्ष में / मुसाफिर बैठा की कविता

बुढ़ाते बालों के पक्ष में



सिर पर एक दो सफेद बालों की
बोहनी ही हुई थी जब
तभी ठनका था मेरा माथा
कि तीस बत्तीस बीतने के साथ ही
उठान की एलास्टिक लिमिट पार कर
बुढ़ाने लगी है मेरी काया

जब तक बीनने लायक ही पके थे बाल
तो दोनों बिटिया पुष्पा व रश्मि
सिर से मेरे उलझी रहती थी जब तब

खेत बाहर किए जाने योग्य
चांदी बालों की फसल उन दिनों
उन बाल मनों को उकताने उचाटने के लिए
बहुत नाकाफी थे

अगला साल दो साल और बीतते बीतते
जब पके बालों की आमद बढ़कर
पहुंच गई कोई बीस पचीस प्रतिशत
तो बाल बिनवाने के दिन भी
लदने प्रतीत हुए
लगा कि अब मेरे बाल दिनानुदिन
हजाम की कैंची के लिए भी
बेशक कम पड़ते जाएंगे

हालांकि
तब भी मैं खुशफहमी पालता
अपने में गापिफल रहा बेफिक्र
कि अपनी बाल बाड़ी में अभी तो
बाल मजदूरों को खटाकर
बखूबी काम चलाया जा सकता है

छुटकी को लगाया काम पर एक दिन
तो उसने भेदक प्रश्न किया--
    पापा, उजलाए बालों को निकालूं
    या कि काले कजरारे बाल

अब मैं जमीन पर था

अब तक पकने लगी थीं
निगोड़ी मूंछंे भी इतनी
कि उनकी सफेदी आनुपातिक रूप से
सिर के बालों से होड़ करने लगी
कि मूंछांे की चिंता
पत्नी तक को सताने लगी
कि अब बालों मूंछों को
खिजाब के हवाले से
अलग रूप देकर सहज रूप देकर
सभा सोसाइटी में
पचने खपने लायक बनाना
हो गया था नितांत आवश्यक
मेरी बीवी मेरे बच्चों
मेरे सेहत फिक्रमंदों की नजर में

जब पकते बालों ने
पचास फीसदी से टपकर
स्पष्ट बहुमत के आंकड़े में
अपनी घुसपैठ बना ली
तो कॉलेज उम्र के लड़के लड़कियां भी
अंकल संकल से मेरी पहचान कर
मेरी घड़ी का समय पूछने लगे

उम्रजर्जर सफेद सन से बालों वाली
मेरी मां का दर्द भी
अपने इस नौनिहाल के लिए
एक दिन यों फूटा-
      असमय ही पक रहे हंै तेरे बाल
      तेरी उम्र ही अभी क्या हुई है
      तुम्हारे जैसे कितने तो अभी
      कांच कुंवारे ही बैठे हैं
      बेटे
      तू बहू बच्चों के
      खिजाब वाले मशवरे पर
      क्यों नहीं गौर फरमाता

मां
पत्नी
बच्चे
यार दोस्त
यहां तक कि मेरे प्रति
ईष्र्या डाह रखने वाले
कई खिजाबी लोग-
सभी
मेरे बालों के इस सवाल पर
अजीब इत्तिफाक रखते थे

मुझे इन अपने परायों की खातिर
अपनी बाल-रक्षा के पक्ष में
आखिरी दाव ब्रह्मास्त्रा भी आजमा कर
देख लेने में
कोई बुराई नजर नहीं आई

मैंने चार छह महीने
काली खिजाब चपोती
और स्वाभाविक दिख दिख कर
बोर हो गया
फिर अगले दो चार माह तक
वक्त के असहजकर निवेश की कीमत पर 
मेंहदी का डीसेंट रंग दे दे कर
अपने बालों की
उघड़ती असलियत छुपाता रहा

और अंततः
स्वाभाविकता ओढ़ते तलाशते आजमाते
असहज हो
थक हार कर बैठ गया

जबकि मेरी सहज बुद्धि
अब दे रही है गवाही
कि प्रकृति के अनिवार हस्तक्षेप जनित
अपने स्याह बालों पर
चढ़ी धवल पिचकारी से
मैं कहीं श्रीहत हतकांति
कहां होता हूं ।

                                     2006