पृष्ठ

शनिवार, 1 जनवरी 2011

समालोचन: सहजि सहजि गुन रमैं : निरंजन श्रोत्रिय

समालोचन: सहजि सहजि गुन रमैं : निरंजन श्रोत्रिय

1 टिप्पणी:

  1. तमाम कवितायें अच्छी हैं पर ‘पत्नी से अबोला’ की ये पंक्तियाँ आलोड़न कर मन में एक खास घर बना लेती हैं-
    उलझी हुई है डोर
    गुम हो चुके सिरे दोनों
    न लगाई जा सकती है गाँठ
    फिर कैसे बुहारा जाएगा इस मनहूसियत को
    घर की दहलीज से एकदम बाहर
    अब तो बरदाश्त भी दे चुकी है जवाब

    और ‘डूबते हरसूद पर पिकनिक’ की ये मानीखेज लाइनें-
    तलाशा जाता है एक मृत सभ्यता को खोद-खोद कर
    मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और भीमबेटका में
    और एक जीवित सभ्यता
    देखते-ही-देखते
    अतल गहराईयों में डुबो दी जाती है..

    निहित स्वार्थ और थोथे राष्ट्रवाद के कुछ देशद्रोही कर्म पर भी सटीक बैठती है.बाबरी मस्जिद विध्वंस और इंडोनेशिया के गौतम बुद्ध से सम्बद्ध स्तूपों के ध्वंस ऐसे ही कुछ गर्हित कर्म हैं.ये ‘रक्षा में हत्या’ सरीखा हत्कर्म हैं.
    बधाई, रचना-पुरस्कर्ता को और आभार काव्य-प्रस्तुतकर्ता का!

    जवाब देंहटाएं